Wednesday, April 29, 2015

"प्रतिकार"

सुन  रही हूँ  रुदन जन -जन का
कराहते विस्थापितो के अंतर्मन का
संतप्त,विवश ,मलिन मेरा आँचल
निस्तेज हो धँस रहा दिव्य हिमाचल

जल ,नभ,स्थल ,मेरु,पठार
पक्षी ,चौपाये ,पीपल और मंदार
थी मैं समृद्धा और सुसज्जित
तूने ही की कोख नित लज्जित

अनदेखे  थे बुरक़े-घूँघट ,ज़िहाद और जौहर
न निराश बबूल , न गर्वित था गुलमोहर !
कब बँधा तू मुझसे , है स्वार्थ की दूरी
सौर-मंडल हँस रहा ,झूकी मेरी धूरी

रंग  ,वेष ,भाषा ,धर्म की ओढ़े चादर
सत्य अपमानित ,मूल्यों का निरादर
करुँ संहार ,पेशावर के मदमस्तो का ?
बोझ दबा रहा मुझे  ,मासूम बस्तों का!

अट्टालिका नहीं तेरी , मेरी यह काया
अनवरत युगोँ से, दोहन करता आया !
रत्न ,नदियाँ, वन ,दूषित कण -कण
विपदा को स्वीकृत यह निमंत्रण

युद्ध,बल,शोध, विकास, संवर्धन हेतू
स्वाधीन चाहे मेरे नियमों के सेतू
भूकम्प , सूखा ,तूफ़ान ,अग्नि ,अतिवृष्टि
"प्रतिकार" !!ऐसे ही करती हूँ मैं 'सृष्टि'

© जूही गुप्ते 

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