Saturday, January 9, 2016

ज़िंदा रहने से डर लगता है



खिड़की बंद कर ली है
कोई रोशनी इस तिमिर को
चीरने नहीं पायेगी
अकेलेपन के परदे खींच दिए हैं
सलीकों की रस्सी से
उम्मीद को कस दिया है 
आहट हो कोई अब
उस उजाले से डर लगता है

चूड़ियाँ उतार कर रख दी थी
 सपने भी थे काँच के
रूह के रुमाल में 
 सहेजे पड़े है टूटे टुकड़े
 हँसी कभी पहन लेती हूँ
 बेरंग हुए वादों के ऊपर
 ओढ़ कर अच्छी दिखती है ,पर
 दुल्हन बनने से डर लगता है

 बेपरवाह सा है मिज़ाज वक़्त का ,
नामालूम मासूम मौसम को
कब-कब उसे लिबास बदलना है
और आना है मेरे रास्तों में
हर मोड़ पर टोकने
आसमाँ साझा करने से
थकावट नहीं है ; जाने क्यों?
उड़ने से डर लगता है

फ़िर कैसे आए तुम?
स्पंदन भी झंकृत  हुआ है
इस बूत के खालीपन में 
झकझोर कर कह तो दिया
की मुझसे राब्ता है
जब खो ही चूकी हूँ खुद को
बस साँसे चलने दो 
ज़िंदा रहने से डर लगता है

© जूही गुप्ते