Thursday, September 13, 2018

तुम ही समझो

छप्पन भोग बनाती थी
सजती, तुम्हें सजाती थी
रफ्तार उसे उलझा सी गई
पर मुस्कान वही है
तुम ही समझो

भूली नहीं है मुरली की धुन
गुम हुए हैं पायल कुमकुम
होड़ उसे बहला सी गई है
पर प्रीत वही है
तुम ही समझो

चूड़ी-मेहंदी मजबूर हुई है
त्यौहारों से कुछ दूर हुई है
दौड़ उसे थका सी गई है
पर आस वही है
तुम ही समझो

अब स्पर्धा ही व्रत उसका है
निडर साहसी मत उसका है
चोट उसे दहला सी गई है
उड़ान नई है
तुम ही समझो

सहमी कल थी, आज लड़ी है
घड़ी से आगे निकल पड़ी है
रीत गर वो निभा न पाए
कोई न समझेगा, कान्हा
तुम ही समझो

© जूही गुप्ते

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