Saturday, June 20, 2015

पापा थोड़े दिन और रुक जाते

चुप-सा अख़बार पड़ा रहता है
ख़ाली कुर्सी-कमरे से कहता है
अब आप ख़बरें पढ़कर नहीं  सुनाते
पापा थोड़े  दिन और रुक जाते

गीत आज भी वही बजते है
किताबों के बाज़ार अब भी सजते हैं
पन्ने पलटते हुए आप नही गुनगुनाते
पापा थोड़े  दिन और रुक जाते

याद आपकी हर कहानी पूरी है
पर बच्चों- बड़ों की बातें अधूरी है
दोस्तों संग ठहाके आप नहीं लगाते
पापा थोड़े  दिन और रुक जाते

भाई का बचपन ज़िम्मेदार हो गया है
छोटी ने भी आपका नाम रोशन किया है
एक बार आकर उनकी पीठ थप-थपाते
पापा थोड़े  दिन और रुक जाते

बुआ की राखी तस्वीर को चढ़ती है
काका की होली सूखे आँसू रँगती है
त्यौहार अब ख़ुश नही रह पाते
पापा थोड़े  दिन और रुक जाते

माँ के गहनों में काले मोती नहीं है
हँसी में अब मिठास होती नहीं है
दुःख औरों से उन्हें बांटने नहीं आते
पापा थोड़े  दिन और रुक जाते

बेटी कब अकेले ससुराल चली थी?
शहनाई को बस ये बात खली थी
रोकर मुझे बिदा कर पाते
पापा थोड़े  दिन और रुक जाते

कहते थे आप ; की दुनिया अच्छी है
सच्चे लोगों की हर बात सच्ची है
देख लेते ,झूठों को मेरी सच्चाई आज़माते
पापा थोड़े  दिन और रुक जाते

© Juhi Gupte

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