"मम्मा, तुम ना
समझोगी"!
कह कर,कल फ़ोन काट दिया
था
झुंझलाहट में तुम्हें
दुखी कर
हाँ, मैंने फिर वही
किया था!
बचपन से रिपोर्ट-कार्ड पर
पापा का ही नाम लिखा
है
प्रगति का द्योतक
तुम हो
जो भी मैं
हूँ , तुमसे सीखा
है
प्रश्न आँखो में
विकल बहुत थे
औरों की माँओं
को घर देखकर
क्यों ऑफिस जाती
थी तुम
बंद तालों में मुझे
छोड़कर ?
दिया जलाकर शाम
को तुम
जब श्लोक -प्रार्थना गाती
थी
और फिर मेरे
दोहराने पर
नैतिक कोई पाठ
पढ़ाती थी
आँचल में तुम्हारे
सिमटकर
दोस्ती हर रात
नई कहानी से
रज़िया,रमा,मीरा
के किस्से
आदर्श उस झाँसी
वाली रानी के
अब समझी, क्यों ज़ोर
देती रही
पकाने से अधिक कमाने पर
और क्यों रातभर जागती
थी
,
परीक्षा
की तारीखें आने
पर
हो तुम साधारण-सी बिल्कुल
ये आत्म-विश्वास
कहाँ से लाई हो
?
समाज़ ,नियति और कभी
खुद से
इतना सहज जीतती
आई हो !
सृष्टि का सार
समाने वाली
एक रचना कालजयी-सी हो
या पीयूष स्रोत्र से बहने
वाली
किसी निडर पवित्र
नदी-सी हो?
शब्द मेरे नीरव हो
बैठे हैं
तुम्हारे चरित्र के
वर्णन पर
कैसे समेट लूँ ईश्वर
को
महज़ कागज़ के टुकड़े
पर?
आज है जन्मदिन
तुम्हारा
एक उपहार माँग रही हूँ
मैं !
चाहे कितने कॉल्स काट
दूँ
हर जन्म तुम्हारी
बेटी रहूँगी मैं
!
©जूही गुप्ते
No comments:
Post a Comment