Monday, May 23, 2016

अंदाज़ा


मैंने आँधी नहीं कहा
हमारी किसी मुलाकात को
हर पल सहेजती आई हूँ
समझो ज़रा-सी बात को

हाँ , कभी गुज़री थी मैं
सौंधी-सी खुशबू बनकर
जिस फ़िजा में ढल गए थे तुम
मेरे हमराज़ बनकर

पर हूँ उसी शीशे में कैद
स्थिर एक लम्हा मैं ,
जहाँ रेत फिसलती थी
और तुम्हारा चेहरा बन जाता था

हाथों ने मेरे कुछ ख्वाब सजाए थे
हमारे एक छोटे-से बसेरे के
तुम में ढलते ढलते ,
शायद खुद को भुला दिया मैंने
इसलिए मुरझा गई हूँ

हो सके तो कभी पलट कर
मुझ तक जाना तुम
तब अंदाज़ा लगा पाओगे
की अभी तुम ही वो अंदाज़ हो
जिसके मुमकिन होने का
मैंने अंदाज़ा लगाया था कभी !










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