मैंने आँधी नहीं
कहा
हमारी किसी मुलाकात
को
हर पल सहेजती
आई हूँ
समझो ज़रा-सी बात
को
हाँ , कभी गुज़री
थी मैं
सौंधी-सी खुशबू
बनकर
जिस फ़िजा में
ढल गए थे
तुम
मेरे हमराज़ बनकर
पर हूँ उसी
शीशे में कैद
स्थिर एक लम्हा
मैं ,
जहाँ रेत फिसलती
थी
और तुम्हारा चेहरा बन
जाता था
हाथों ने मेरे
कुछ ख्वाब सजाए
थे
हमारे एक छोटे-से बसेरे
के
तुम में ढलते
ढलते ,
शायद खुद को
भुला दिया मैंने
इसलिए मुरझा गई हूँ
हो सके तो
कभी पलट कर
मुझ तक आ
जाना तुम
तब अंदाज़ा लगा पाओगे
की अभी तुम
ही वो अंदाज़
हो
जिसके मुमकिन होने का
मैंने अंदाज़ा लगाया था
कभी !
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