क्या मिला महाकथा रच के ?
झूठ पड़ा सटा सच से !
कि घर ने खेली खूनी होली थी
संतप्त हुई ,वो तुझसे ये बोली थी
"लड़े-मरे तेरा कुल भी, घोष है गांधारी का "
केशव तेरे भारत को , शाप चढ़ा था नारी का
तू था 'तथास्तु' कह आया
सौ दोष भी सह आया
देख कि अब क्या हो रहा
तू चिर-निद्रा में सो रहा ?
उठ ! सुन क्रंदन उस केसर की किलकारी का
केशव तेरे भारत को ,फिर शाप चढ़ा है नारी का
किस धर्म के अंधे भक्त हुए?
सत्ता-कीचड़ में लिप्त हुए
हाथ उठे या कमल खिले
जनता को सिर्फ छल मिले
पीताम्बर छीटों से सना, दाग है लाचारी का
केशव तेरे भारत को ,फिर शाप चढ़ा है नारी का
मूर्खों सी बाते करते हैं
पापी घड़े यूँ भरते हैं
पुण्य मल-सा बह जाता है
शून्य भाव रह जाता है
बाँसुरी-स्वर से भर, आँचल नीरवता की क्यारी का
केशव तेरे भारत को ,फिर शाप चढ़ा है नारी का
एक दूजे पे थूक रहे
हैं खुद का घर फूंक रहे
ये लाल,हरे,नीले हो बिखरते हैं
बन गुंडे, झंडे लहराए फिरते हैं
शांति-गीता पाठ पढ़ा दे, इलाज कर बीमारी का
केशव तेरे भारत को, और शाप चढ़े न नारी का
© जूही गुप्ते
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