नहीं होते अच्छे किस्से
जिनमें होते हों हिस्से
खेल जैसे दिन-रातों के
ऐसे कुछ हालातों में
बंटवारा ज़रुरी है
श्वेत-पुंज संचित हुआ
जग रंगों से वंचित हुआ
एक अनेक हो जाना है
गर इंद्रधनु सजाना है
तो,बंटवारा ज़रुरी है
कलकल नदी मचलती है
सिमटती कहीं बिखरती है
सागर को अपनाना है
हाँ, पहाड़ चीरते जाना है
बंटवारा ज़रुरी है
रीत जन्म की बेमिसाल
जुड़ती है इक दिव्य नाल
ममता का स्पर्श पाना हो
जननी को माँ कहलाना हो
तो,बंटवारा ज़रुरी है
जीवन के टुकड़े समान
भूत भविष्य और वर्तमान
वक्त ही पैमाना है
गूढ़ यही समझाना है
कि, बँटवारा ज़रूरी है
© Juhi Gupte
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