Thursday, November 24, 2016

मेरे पाँच सौ , तुम्हारे हज़ार





हैं बँधे एक डोर से हम-तुम
क्यों है दूर रुके से गुमसुम ?
साथ चलो फिर एक बार
कदम पांच सौ , साँसे हज़ार

वक़्त फिसलता चलता है
मन को कौन समझता है
कभी नखरे, कभी तकरार
                मेरे पाँच सौ , तुम्हारे हज़ार!!

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