Monday, March 9, 2015

मेट्रो -2012



कुछ सामान में समेटे घर
कुछ कदमों की दूरी पर
दुआ भरी नम आँखों को
रास्ते ने मुड़ कर देखा है

आदतों को तरीके सीखाना है
नाम को वजूद बनाना है
नए मक़ाम के सवेरे को
रातो ने उठकर देखा है

कभी चुभती हुई दुपहरों में
और साथ चले हम लहरों पे
जन्मों के उन वादों को
बीते कल में सिमटे देखा है

अपनापन  है एहसान  यहाँ
हँसी के ऊँचे दाम यहाँ
भीड भरी इन शामों में
इंसानियत को ढलते देखा है

© जूही गुप्ते

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