कोटि प्राणियों के
बीच
लेखन-पठन का वर
दोपायों को दे बैठी
हो
छीन मत लेना किसी दिन
भूले-भटके, अटके, सिफ़र
हैं
समय कहाँ स्याही में
डूबने का ?
ऑटो -टेक्स्ट पर सब
निर्भर हैं
"चलता है"
कि तर्ज़ पर
शब्द- जर्ज़र; अशुद्ध-उच्चार
ट्रेंड में है आजकल
यों न टूटे, वे वीणा
के तार
सृजन-साधना नहीं करते
अब
हंस सारे पढ़े लिखे
जो हैं
कौवे की कक्षा में
चाल-चलन सीख रहे हैं
आज इन ऊँची काँच
की
अट्टालिकाओं
में बैठी
मशीन हो चली
है
वो अल्हड़ टोली
खौलती थी रीतियों-नीतियों
पर
भीतर-बाहर मैंने
टटोला
पड़ा हो कहीं नॉन-ब्रांडेड
सरफरोश-बसंती-चोला
पर याद होगा तुमको,
स्कूल की प्रार्थनाओं
में
रखकर स्वरूप तुम्हारा
उत्सव और सभाओं
में
गीत गाए जाते
थे
केसर-भात, पूड़ी
-हलवा
घर-घर पकाए
जाते थे
शिथिल शहरी
तारीखों में
गौण हैं सादे त्यौहार
वीकेंड पर नहीं
आते जो ये
पीली सरसों
कब देखी है,
न्यूनता से
लैस सडकों ने
हे शारदे! ओढ़ा दो
कोई
सद्ज्ञान के
गोटे-बूटे वाला
अमलतास का आँचल
!!
© जूही गुप्ते
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