रुक जाओ ज़रा
ये अनवरत जो
दौड़े जा रही हो
कहूँगी नहीं तुमसे
शब्दों में
सुन लो मेरा अंतर्मन
चाय ठंडी हो जाती है
रोटियां सेंकते हुए
बाद में पीने को रखी हुई
आज भी तुम ,
अपने फुर्सत के पल
यूँ ही न्यौछावर कर देती हो
हम सब पर
कैसे भाँप लेती हो
मेरी हँसी में बेचैनी
औरों से आसानी से छुपाई हुई
हाँ , फ़ोन भी आ जाता है
अचूक तीर सा, जब भी
विकलता झंझोड़ने वाली होती है
कहती हो जब की
अब नहीं वो बल -साहस
मुझ पर है सब निर्भर
झुर्रियों में दबे हैं
जीवन के अनुभव
कमज़ोर तुम नहीं
अब भी मैं हूँ
स्वाद ले लो माँ
एक बार खुद को
सबसे पहले रख लो
कैलेंडर की तारीखों में
पुरानी डायरी की लिस्ट में
साया कर देना तुम
आज भी तुम्हे नहीं
मुझे ज़रूरत है
तुम्हारी , तुमसे ज़्यादा!!
© Juhi Gupte
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