नज़्म कविताएँ तो कभी
शायरी
स्याही के घाव
सहती चुपचाप डायरी
न जाने किस
दिन शुरू हुआ
होगा
छंदों का काफिला-सा
चला होगा
दिन नहीं वह
कोई रात रही
होगी
शर्तों से घिरे
मन में बात
'अनकही' होगी
अंधेरों में देखा
होगा सब बारीकी
से
अलंकारों की इबारत
तब बही होगी
बादलों पर दाग
लगा आवारा होने
का
ढलते सूरज पर
दोष है
दिन खोने का
लहरों और साहिल
को अलग किया
बारिशों को ‘नाम’,आसमाँ के रोने
का
तिमिर को कभी
काला जामा पहनाया
तो मासूम फूलों पर
भ्रमर को ललचाया
चाँद टहलने निकला शाम
को जैसे ही
बहुतों ने उपमाओं
का जाल बिछाया
व्याकुल है आतुर
है या चंचल
है ?
अनभिज्ञ है नदी
, बहती कलकल है
पहाड़ तो खड़े
, समेटे अनेकों अंचल है
नामालूम उनको , कि सिखाते
आत्मबल है
कर बैठा कहीं
कोई किसी से
बेवफ़ाई
आरोपों में काली
घटा उलझी, घिर
आई
बंधनों के बोझ
तले कुचले गए
रिश्ते
कागज़ पर एक
अधूरी-कहानी गहराई
चाय से भरा
था मिट्टी का
प्याला
जीवन का रहस्य
उसमें मिला डाला
कहीं पड़े थे
रंगरेज़ के दुप्पटे
गिले
बुन गया रूबाइयत
पूरी लिखनेवाला
चीजों में प्रेरणा
कैसे त्वरित मिलती
है
अलग -गज़ब का
इनकी सोच लिखती
है
भाषा वरद हस्त
है या कलम
नत-मस्तक है
?
हर बार अचंभे
में श्रोता और
पाठक हैं
किसने खींची
लकीर आज किरणों
की
कल की स्लेट
पर चाँदनी-चुरा
गिरा होगा
है वो पहला
कवि ,गीतकार और
शायर
सृष्टि का महाकाव्य
जिसने रचा होगा
© जूही गुप्ते
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