फिर समारोह में जाकर
आई
परिजन की सफलता सुनाई??
करो बाध्य
“निर्भर” जिव्हा को, कि
स्व-उपलब्धि
का तुम बखान
करो!
अज्ञान का आनंद
ये कैसा ??
रुके हुए
दरिया के जैसा
शोध लो
अपने अस्तित्व का
ज्ञान-सिन्धु की
ओर रुझान करो
क्यों उत्कंठा में ऊर्जा
बाँधी है ?
सिर्फ “साक्षरता “ से तो
स्पर्धा आधी है!
ध्येय बहुत दूर है अब भी
सत्य है, स्वीकार करो !
तुमसे वीरता का
उद्गम है
तुमसे सृष्टि में
संयम है
नव-विहान का स्वागत होने दो
मानवता का मानक तुम
हो
शिक्षा का हर
स्थानक तुम हो
आईने से धूल हटाओ
जीवन “उत्सव” से
पहचान करो
रुख बदलते
हैं ज़िद्दी बादल
दृढ़ जब
भी अभिलाषा हो
बहानों की बेड़ीयाँ
तोड़ो
संकल्प की
नई उड़ान
भरो
रूढ़ियों का
सतत विरोध कर
स्त्री- जन्म को सार्थक
संज्ञा दो
'महान' आप ही
बन जाएगा
तुम काम कोई आसान करो
संस्कृति का दर्शन
तुम से
सृजन और
संरक्षण तुम से
स्वावलंबन के गहने पहनो,
साहस का श्रृंगार करो
शक्ति की परिभाषा
हो तुम
शब्द नहीं
पूरी भाषा हो तुम
सबके लिए
जो करती आई
हो
खुद के
लिए इस बार
करो
बहुत हुई
क्षणिक उपमाएँ
महिला दिवस के बाज़ार
सजाए
खोखली जय जयकार
से पहले
तुम अपना
सम्मान करो!!
© जूही गुप्ते
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