खिड़की बंद कर
ली है
कोई रोशनी इस तिमिर
को
चीरने नहीं आ
पायेगी
अकेलेपन के परदे
खींच दिए हैं
सलीकों की रस्सी से
उम्मीद को कस दिया
है
आहट हो न
कोई अब
उस उजाले से डर
लगता है
चूड़ियाँ उतार कर
रख दी थी
सपने भी
थे काँच के
रूह के रुमाल में
सहेजे पड़े है
टूटे टुकड़े
हँसी कभी
पहन लेती हूँ
बेरंग हुए
वादों के ऊपर
ओढ़ कर
अच्छी दिखती है
,पर
दुल्हन बनने से
डर लगता है
बेपरवाह सा है
मिज़ाज वक़्त का
,
नामालूम मासूम मौसम को
कब-कब उसे
लिबास बदलना है
और आना है
मेरे रास्तों में
हर मोड़ पर
टोकने
आसमाँ साझा
करने से
थकावट नहीं है
; जाने क्यों?
उड़ने से डर
लगता है
फ़िर कैसे आए तुम?
स्पंदन भी झंकृत हुआ
है
इस बूत के खालीपन में
झकझोर कर कह
तो दिया
की मुझसे राब्ता
है
जब खो ही चूकी हूँ
खुद को
बस साँसे चलने दो
ज़िंदा रहने से
डर लगता है
© जूही गुप्ते
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