रविवार को शॉपिंग
पर
साथ चले दो
लेडीज पर्स
एक था शोरूम
का, "सुसज्जित"
दूजा फटा-सा
नित लज्जित
बहुत इठलाया अपने ब्रांडेड
रूप पर
उसकी जड़ित अंगूठियों
में सिमटा 'वह'
सिकुड़ा सस्ते आँचल में
चढ़ती धूप पर
घिसती हथेली ने संभाला
हुआ 'यह'
'महँगा' था !!बोल
पड़ा अकड़ में
पहले
"इन हाथों की छवि
निराली है
पढ़ा-लिखा और
हूँ आत्मनिर्भर
बस समझ ले;
हर दिन दिवाली है"!!
दूसरा भी धीरे
से कह पड़ा
"औरों पर नहीं
मैं आश्रित
वह धोती कपडे ; बर्तन झूठे
मेरा जीवन है समर्पित
तू लगभग "ख़ाली" ; टुटा-सा
फिर कैसे मुस्कुराता
है ??
तेरे पास है
सहेली-परिवार
मेरा न कोई
नाता है !!
तुझे है पूछे
तीज त्यौहार
पड़ोस बहन और
भाई
मुझसे मुँह मोड़े
सब
अनजाने हैं ननद
-भौजाई
सकुचाया जब कहा
बाजार में
छोटी के लिए
गुड़िया लेनी है
चमक सहमी अब
खोखली
इसकी गोद आज
भी सूनी है
वह थक गया
था ; भूखा था
पर इसका सामान
उठाया
उसको लेने आया
पुराना स्कूटर
इसको
"सॉरी" का मैसेज
आया !!
© जूही गुप्ते
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