गुस्ताख़ी की है दीदों ने
ख़्वाब देखने की , और
बेगैरत-सी चाह भी
कि तू और मैं साथ हैं
न हयात -ए -शरीक मैं
न दुआ को कुबुल तू
नागवार था वक़्त को
कि तू और मैं साथ हैं
कैद ज़िस्म फर्ज़ में ,
कर्ज़ अदायगी को मगर
रूह ने बेख़ौफ़ कह दिया
कि तू और मैं साथ हैं
तक़दीर को है गिला
खेलना पड़ा उसे है ,
पर फ़ासले थे ही कब?
खेलना पड़ा उसे है ,
पर फ़ासले थे ही कब?
कि तू और मैं साथ हैं
न रहनुमा मेरा तू हुआ
न बन सका तू हमसफ़र
ज़िन्दग़ी है तूझे नज़र
कि तू और मैं साथ हैं
© Juhi Gupte